Wednesday, August 11, 2010

देवताओं की घाटी कुल्लू

हिमाचल प्रदेश में बसा एक खूबसूरत पर्यटन स्‍थल है कुल्‍लू। इसकी खूबसूरती और हरियाली पर्यटकों को हमेशा ही अपनी ओर खींचती आई है। कुल्‍लू घाटी का प्राचीन नाम कुलंथपीठ था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्‍य दुनिया का अंत। कुल्‍लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी के नाम से जानी जाती है। ब्यास नदी के किनारे बसा यह स्‍थान अपने यहां मनाए जाने वाले रंग-बिरंगे दशहरे के लिए प्रसिद्ध है।
यहां 17वीं शताब्‍दी में निर्मित रघुनाथजी का मंदिर भी है जो हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्‍थान है। सिल्‍वर वैली के नाम से मशहूर यह जगह केवल सांस्‍कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के लिए ही नहीं बल्कि एडवेंचर स्‍पोर्ट के लिए भी प्रसिद्ध है। गर्मी के मौसम में कुल्‍लू सैलानियों का एक मनपसंद पर्यटन स्थल है। मैदानों में तपती धूप से बच कर लोग हिमाचल प्रदेश की कुल्‍लू घाटी में शरण लेते हैं। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्‍लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्‍लू की सबसे बड़ी विशेषता है।

रघुनाथजी मंदिर
इस मंदिर का निर्माण राजा जगत सिंह ने 17वीं शताब्‍दी में करवाया था। कहा जाता है कि एक बार उनसे एक भयंकर भूल हो गई थी। उस गलती का प्रायश्चित करने के लिए उन्‍होंने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। यहां श्री रघुना‍थजी अपने रथ पर विराजमान हैं। इस मंदिर में स्‍थापित रघुनाथजी की प्रतिमा राजा जगत सिंह ने अयोध्‍या से मंगवाई थी। आज भी इस मंदिर की शोभा देखते ही बनती है।

बिजली महादेव मंदिर
कुल्‍लू से 10 किमी. दूर ब्यास नदी के किनारे पहाड़ी के शिखर पर बना यह मंदिर यहां का प्रमुख धार्मिक स्‍थल है। मंदिर तक पहुंचने के लिए कठिन चढ़ाई चढ़नी होती है। यहां का मुख्‍य आकर्षण 10 मी. लंबी छड़ी है। इसे देखकर ऐसा ल्रगता है मानो यह सूरज को भेद रही हो। इस छड़ी के बारे में कहा जाता है बिजली कड़कने पर इसमें जो तरंगें उठती है वे भगवान का आशीर्वाद होता है। ऐसी मान्यता हैं कि जब भी पृथ्वी पर कोई दैवीय आपदा आने वाली होती है तो भगवान शिव उसको खुद पर झेल लेते हैं। जब बिजली गिरती है तो मंदिर में स्थापित शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। शिवलिंग के टुकड़े पहाड़ी के चारों ओर बिखर जाते हैं। उसके बाद मंदिर के पुजारी को सपने में सभी टुकड़े कराहते हुए दिखाई पड़ते हैं। पुजारी सभी टुकड़ों को इकट्ठा करता है, इसके बाद मक्खन से सभी टुकड़ों को जोड़कर शिवलिंग तैयार किया जाता है। यहां सच्चे मन से मांगी मन्नत शिव जी जरूर पूरी करते हैं। इस मंदिर से कुल्‍लू और पार्वती घाटी का खूबसूरत नजारा देखा जा सकता है। हिमाचल में सबसे ज्यादा बादल फटने की घटना कुल्लू में ही होती है।

कुल्लू का दशहरा
कुल्‍लू का दशहरा पूरे देश में प्रसि‍द्ध है। इसकी खासियत है कि जब पूरे देश में दशहरा खत्‍म हो जाता है तब यहां शुरू होता है। देश के बाकी हिस्‍सों की तरह यहां दशहरा रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन करके नहीं मनाया जाता। सात दिनों तक चलने वाला यह उत्‍सव हिमाचल के लोगों की संस्‍कृति और धार्मिक आस्‍था का प्रतीक है। उत्‍सव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। यहां के लोगों का मानना है कि करीब 1000 देवी-देवता इस अवसर पर पृथ्‍वी पर आकर इसमें शामिल होते हैं।

वॉटर और एडवेंचर स्‍पोर्ट
कुल्‍लू घाटी में कई जगहे हैं जहां मछली पकड़ने का आनंद उठाया जा सकता है। इन जगहों में रायसन, कसोल और नागर प्रमुख हैं। इसके साथ ही ब्यास नदी में वॉटर राफ्टिंग का मजा लिया जा सकता है। इन सबके अलावा यहां ट्रैकिंग भी की जा सकती है।

कुल्‍लू के आसपास दर्शनीय स्‍थल

नागर
यह स्‍थान करीब 1400 वर्षों तक कुल्‍लू की राजधानी रहा है। यहां 16वीं शताब्‍दी में बने पत्‍थर और लकड़ी के आलीशान महल आज होटलों में बदल चुके हैं। इन होटलों का संचालन हिमाचल पर्यटन निगम करता है। यहां रूसी चित्रकार निकोलस रोएरिक की एक चित्र दीर्घा है। इन सबके अलावा यहां विष्‍णु, त्रिपुरा सुंदरी और भगवान कृष्‍ण के प्राचीन मंदिर भी हैं।

जगतसुख
कुल्‍लू की सबसे प्राचीन राजधानी जगतसुख है। यह विज नदी के बायीं ओर नागर और मनाली के बीच स्थित है। यहां दो प्राचीन मंदिर हैं। पहला छोटा सा गौरी शंकर मंदिर और दूसरा संध्‍या देवी का मंदिर है।

देव टिब्‍बा
समुद्र तल से 2953 मी. की ऊंचाई पर स्थित इस जगह को इंद्रालिका के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि महर्षि वशिष्‍ठ ने अर्जुन को पशुपति अस्‍त्र पाने के लिए तप करने का परामर्श दिया था। इसी स्‍थान पर अर्जुन ने इंद्र से यह अस्‍त्र पाने के लिए तप किया था।

बंजार
यहां श्रृंग ऋषि का प्रसिद्ध मंदिर है। इन्‍हीं ऋषि की याद में यहां हर साल मई के महीने में एक उत्‍सव का आयोजन किया जाता है। यहां ठहरने के लिए पीडब्‍ल्‍यूडी का रेस्‍ट हाउस उपलब्‍ध है। कुछ दूरी पर ही जलोरी पास है जो बन्जार से सिर्फ 19 किलोमीट‍र दूर है जो गर्मियों में भी बर्फ की चादर से ढका रह्ता है। यहां से कुछ दू‍री प‍र सियोल्सर नाम की एक खूबसूरत झील है जो देवदार के हरे भरे जंगल से घिरी हुई है।

मणीकरन
यह स्‍थान कुल्‍लू से 43 किमी. दूर है। यह जगह गर्म पानी के झरने के लिए प्रसिद्ध है। हजारों लोग इस पवित्र गर्म पानी में डुबकी लगाते हैं। यहां का पानी इतना गर्म होता है कि इसमें दाल और सब्‍जी पकायी जा सकती हैं। यह हिंदुओं और सिक्‍खों का प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल है। यहां गुरुद्वारे के साथ रामचंद्र और शिवजी का प्राचीन मंदिर भी है।

कैसे जाएं कुल्लू
वायु मार्ग: नजदीकी हवाई अड्डा भुंतर कुल्‍लू से 10 किमी. दूर है। यहां के लिए दिल्‍ली से नियमित उड़ानें हैं। भुंतर से कुल्‍लू घाटी के लिए बस और टैक्सियां मिल जाती हैं।
रेल मार्ग: निकटतम रेलवे स्टेशन कालका, चंडीगढ़ और पठानकोट हैं जहां से कुल्‍लू सड़क के रास्‍ते पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग: कुल्‍लू दिल्‍ली, अंबाला, चंडीगढ़, शिमला, देहरादून, पठानकोट, धर्मशाला और डलहौजी समेत हिमाचल और देश के अन्‍य भागों से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। इन जगहों से कुल्‍लू के लिए नियमित रूप से बसें चलती हैं।

Sunday, July 25, 2010

सैलानियों को आकर्षित करता गुलमर्ग

गुलमर्ग जम्‍मू-कश्‍मीर का एक खूबसूरत हिल स्‍टेशन है। इसकी अतुलनीय सुंदरता के कारण इसे धरती का स्‍वर्ग भी कहा जाता है। यह देश के प्रमुख पर्यटक स्‍थलों में से एक हैं। फूलों के प्रदेश के नाम से मशहूर यह स्‍थान बारामूला जिले में स्थित है। यहां के हरे भरे ढलान सैलानियों को अपनी ओर खींचते हैं। समुद्र तल से 2730 मी. की ऊंचाई पर बसे गुलमर्ग में सर्दी के मौसम के दौरान यहां बड़ी संख्‍या में पर्यटक आते हैं।

गुलमर्ग का इतिहास
गुलमर्ग की स्‍थापना अंग्रेजों ने 1927 में अपने शासनकाल के दौरान की थी। गुलमर्ग का असली नाम गौरीमर्ग था जो यहां के चरवाहों ने इसे दिया था। 16वीं शताब्‍दी में सुल्‍तान युसुफ शाह ने इसका नाम गुलमर्ग रखा। आज यह सिर्फ पहाड़ों का शहर नहीं है, बल्कि यहां विश्‍व का सबसे बड़ा गोल्‍फ कोर्स और देश का प्रमुख स्‍की रिजॉर्ट है।

खिलनमर्ग के हिमाच्छादित शिखर
खिलनमर्ग गुलमर्ग के आंचल में बसी एक खूबसूरत घाटी है। यहां के हरे मैदानों में जंगली फूलों का सौंदर्य देखते ही बनता है। खिलनमर्ग से बर्फ से ढ़के हिमालय और कश्‍मीर घाटी का अदभुत नजारा देखा जा सकता है।

अलपाथर झील
चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरी यह झील अफरवात चोटी के नीचे स्थित है। इस खूबसूरत झील का पानी मध्‍य जून तक बर्फ की बना रहता है।

निंगली नल्‍लाह
गुलमर्ग से आठ किमी दूर स्थित निंगली नल्‍लाह एक धारा है जो अफरात चोटी से पिघली बर्फ और अलपाथर झील के पानी से बनी है। यह सफेद धारा घाटी में गिरती है और अंतत: झेलम नदी में मिलती है। घाटी के साथ बहती यह धारा गुलमर्ग का एक प्रसिद्ध पिकनिक स्‍पॉट है।

गुलमर्ग का गोल्फ कोर्स
गुलमर्ग के गोल्‍फ कोर्स विश्‍व के सबसे बड़े और हरे भरे गोल्‍फ कोर्स में से एक हैं। अंग्रेज यहां अपनी छुट्टियां बिताने आते थे। उन्‍होंने ही गोल्‍फ के शौकीनों के लिए 1904 में गोल्‍फ कोर्स की स्‍थापना की थी। गोल्‍फ कोर्स की देखरेख जम्‍मू और कश्‍मीर पर्यटन विकास प्राधिकरण करता है। गोल्‍फ के शौकीनों के लिए ये जगह काफी खुशनुमा और शानदार है।

गुलमर्ग में स्‍कीइंग
स्‍कीइंग में रुचि रखने वालों के लिए गुलमर्ग देश का नहीं बल्कि इसकी गिनती विश्‍व के सर्वोत्तम स्‍कीइंग रिजॉर्ट में की जाती है। दिसंबर में बर्फ गिरने के बाद यहां बड़ी संख्‍या में पर्यटक स्‍कीइंग करने आते हैं। यहां स्‍कीइंग करने के लिए ढ़लानों पर स्‍कीइंग का अनुभव होना चाहिए। जो लोग स्‍कीइंग सीखना शुरु कर रहे हैं, उनके लिए भी यह सही जगह है। यहां स्‍कीइंग की सभी सुविधाएं और अच्‍छे प्रशिक्षक भी मौजूद हैं।

धरती का स्वर्ग ‘कश्मीर’

किसी ने सच ही कहा है, धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो वह कश्मीर है। फूलों की खूबसूरत वादियों में गर्मियों का नजारा कुछ अलग ही होता है। फिर झील में पड़े शिकारे यूं ही आपका मन मोह लेते हैं। अनोखी प्राकृतिक छटा के बीच कश्मीर की नदियों में नौकायान भी यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र है।

डल झील
डल झील जम्मू-कश्मीर की प्रसिद्ध झील है। 18 किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई यह झील तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी हुई है। डल जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। इसमें सोतों से तो जल आता है साथ ही कश्मीर घाटी की अनेक झीलें आकर इसमें मिलती हैं। डल झील के चार प्रमुख जलाशय हैं गगरी बल, लोकुट डल, बोड डल तथा नागिन। लोकुट डल के मध्य में रूपलंक द्वीप स्थित है। बोड डल जलधारा के मध्य में सोनालंक द्वीप स्थित है। भारत की सबसे सुंदर झीलों में इसका नाम लिया जाता है। पास ही स्थित मुगल गार्डन से डल झील का सौंदर्य पर्यटकों का मन मोह लेता है। पर्यटक जम्मू-कश्मीर आएं और डल झील देखने न जाएं ऐसा हो ही नहीं सकता।

डल झील के मुख्य आकर्षण का केन्द्र है यहां के शिकारे या हाउसबोट। सैलानी इन हाउसबोटों में रहकर झील का आनंद उठाते हैं। नेहरू पार्क, कानुटुर खाना, चारचीनारी आदि द्वीपों तथा हज़रत बल की सैर भी इन शिकारों में की जा सकती है। यहां दुकानें भी शिकारों पर ही लगी होती हैं। आप शिकारे पर सवार होकर विभिन्न प्रकार की वस्तुएं भी खरीद सकते हैं। तरह तरह की वनस्पति झील की सुंदरता को और निखार देती है।

कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी, झील की सुंदरता में चार चांद लगा देती है। सैलानियों के लिए विभिन्न प्रकार के मनोरंजन के साधन जैसे कायाकिंग (एक प्रकार का नौका विहार), केनोइंग (डोंगी), पानी पर सर्फिंग करना तथा ऐंगलिंग (मछली पकड़ना) यहां पर उपलब्ध कराए गए हैं। डल झील में पर्यटन के अतिरिक्त मुख्य रूप से मछली पकड़ने का काम होता है।

कैसे पहुंचें डल झील
डल झील पहुंचने के लिए वायुयान द्वारा श्रीनगर जिले से 25 किमी की दूरी पर बड़गाम जिले में स्थित एयरपोर्ट पर पहुंचा जा सकता है। नजदीकी रेल सेवा जम्मू में स्थित है तथा वहां का नेशनल हाईवे एनएच1ए कश्मीर घाटी को देश के अन्य भागों से जोड़ता है। इन पहाड़ी स्थलों तक पहुंचने में दस से बारह घंटे लगते हैं। इस यात्रा के दौरान पर्यटक यहां की प्रसिद्ध जवाहर सुरंग को देख सकते हैं। डल झील दुनिया की पहली झील है जहां इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध हैं।

फूलों की घाटी 'हर की दून'

फूलों की घाटी का नाम तो आपने सुना ही होगा। जी हां चमोली जनपद की प्रसिद्ध तीर्थ स्थली बद्रीनाथ धाम के पास गंधमादन पर्वत पर स्थित फूलों की घाटी या वैली ऑफ फ्लावर्स। इतनी ही सुंदर पर अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध फूलों की एक और घाटी उत्तराखंड राज्य में उत्तरकाशी जनपद के मौरी विकास खंड स्थित टांस घाटी में है जो हर की दून के नाम से पर्यटकों के बीच लोकप्रिय होती जा रही है। हर की दून जाने के दो मार्ग हैं। एक मार्ग हरिद्वार से ऋषिकेश, नरेन्द्र नगर, चंबा, धरासू, बडकोट, नैनबाग से पुरौला तक और दूसरा देहरादून से मसूरी, कैंप्टी फाल, नौगांव, नैनबाग से पुरौला तक जाता है। पुरौला सुंदर पहाड़ी कस्बा है और चारों ओर पहाड़ों से घिरा बड़ा कटोरा जैसा लगता है। बस्ती के चारों ओर धान के खेत, चीड़ के वृक्ष और उनके ऊपर से झांकती पर्वत श्रृखलाएं पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती हैं।

पुरौला से आगे है सांखरी जोहर की दून का बेस कैंप है। यहां तक बसें और टैक्सियां आती हैं। इसके बाद शुरू होती है लगभग 35 किमी. की ट्रैकिंग यानी पद यात्रा। यह खांई बद्यान क्षेत्र कहलाता है और यहां के सीधे-सादे निवासी अब भी आधुनिक सुख-सुविधाओं से वंचित हैं। सांखरी में आपको पोर्टर और गाइड मिल जाएंगे और आप रात्रि विश्राम के बाद सुबह अपनी रोमांचक यात्रा शुरू कर सकते हैं।

सांखरी समुद्रतल से 1700 मीटर की ऊंचाई पर है और यहीं से प्रारंभ होता है गोविंद पशु विहार का क्षेत्र, जिसमें प्रवेश करने के लिए वन विभाग की अनुमति लेनी पडती है। सूपिन नदी को पार करते ही आप स्वप्न लोक में पहुंच जाते हैं। चीड, सुरमई, बुरांस के घने जंगल और सूपिन नदी के किनारे-किनारे वन्य जीव-जंतुओं को निहारते 12 किमी. का सफर तय करके आप 1900 मीटर की ऊंचाई वाले कस्बे तालुका पहुंचते हैं। तब थोडा विश्राम का मन करने लगता है। चाहें तो यहां रात्रि विश्राम भी कर सकते हैं,

गढ़वाल मंडल पर्यटन निगम के विश्राम गृह में जिसकी बुकिंग हरिद्वार से ही हो जाती है। तालुका से सवेरे थोड़ा जल्दी निकलना पड़ेगा क्योंकि अगला पड़ाव है ओसला गांव जो लगभग 13 किलोमीटर की पद यात्रा के बाद आता है। सूपिन नदी ही आपकी मार्ग दर्शक रहेगी और पथरीली पगडंडियां कई बार पहाड़ी झरनों के बीच से आपको ले जाएंगी जहां आपको ट्रैकिंग शूज उतारने पड़ सकते हैं। यहां से देवदार के जंगल शुरू होते हैं। रई, पुनेर, खर्सो और मोरू के पेड़ों पर मोनाल, मैना और जंगली मुर्गियां आपको कैमरा निकालने के लिए विवश कर देंगी। बीच में एक छोटा सा गांव पड़ेगा गंगाड जहां की लकड़ी के बने सुंदर छोटे-छोटे घर आपका मन मोह लेंगे। यहां आप चाय पी सकते हैं जो आपको तरोताजा कर देगी और आप शाम ढलने से पहले ही ओसला पहुंच जाएंगे। ओसला की समुद्र तल से ऊंचाई है लगभग 2800 मीटर। यहां रात्रि विश्राम की सुविधाएं हैं।
सूपिन नदी को पार लगभग 200 मीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ कर आप बुग्यालों में पहुंच जाते हैं। सूपिन का साथ यहीं तक है। दूर तक फैले हरे घास के मैदानों में हवा में झूमते लहराते रंग बिरंगे फूलों की छटा देख कर लगता है जैसे आप किसी और लोक में आ गए हैं। बर्फीले पर्वतों की चोटियां इतने पास लगती हैं मानो आप हाथ बढ़ा कर छू लेंगे। नीचे देवदार के जंगल और दूर तक दिखती टेढ़ी-मेढ़ी सूपिन नदी को अलविदा कर फूलों के गलीचों, दलदलों जमीन पर बने पथरीले रास्तों पर कूदते-फांदते बंदर पुंछ, स्वर्ग रोहिणी और ज्यूधांर ग्लेशियर से घिरी फूलों की घाटी में पहुंचते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। ओसला से यहां की दूरी लगभग 10 किमी है। सारा मार्ग बहुत ही मनोहर है। पहाड़ी ढलानों पर दूर तक एक ही रंग के फूलों की कई चादर। बीच-बीच में चट्टानों और कहीं कहीं भोजपत्र के पेड़। इन्हीं भोज वृक्षों की ढाल पर हमारे ऋषि-मुनियों ने वेद, उपनिषद और आरण्यकों की रचनाएं लिखी थी।

हर की दून समुद्रतल से लगभग 3500 मीटर की ऊंचाई पर है। रात्रि विश्राम के लिए विश्राम गृह हैं। रात्रि में जब ग्लेशियर टूटते हैं तो लगता है मानों भगवान शंकर का डमरू बज रहा है। रंग बिरंगे फूलों के गलीचे, चांदी सी चमकती नदियां और चारों ओर बर्फीली चोटियां.. क्या स्वर्ग की परिकल्पना इससे अलग हो सकती है?

खास बातें
हर की दून का ट्रैक बहुत कठिन नहीं। इसके लिए ज्यादा अभ्यास की जरूरत नहीं पड़ती। शरीर मौसम व ऊंचाई के अनुकूल हो तो अच्छी सेहत वाले इसे बिना किसी खास तकलीफ के कर सकते हैं। 21 हजार फुट की ऊंचाई वाली स्वर्गा रोहिणी चोटी के लिए बेस कैंप के तौर पर भी हर की दून का इस्तेमाल किया जाता है। हर की दून के लिए यूथ हॉस्टल जैसी कई संस्थाएं हर साल ट्रैकिंग अभियान चलती हैं। आप चाहें तो अपने स्तर पर भी वहां जा सकते हैं। साखंरी में गाइड व पोर्टर मिल जाएंगे। द्वयहां जाने का सर्वोत्तम समय अप्रैल से अक्टूबर के बीच है। रास्ते में कई जगहों पर (यहां तक की हर की दून में भी) गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस मिल जाएंगे। लेकिन इनके लिए बुकिंग पहले करा लें। देहरादून या ऋषिकेश, कहीं से भी पुरौला-सांखरी के लिए सड़क मार्ग का सफर शुरू किया जा सकता है।

फूलों की घाटी का अदभुत सौंदर्य

उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित फूलों की घाटी १० किमी लंबे और २ किमी चौड़े क्षेत्र में फैली है। यह समुद्र तल से 5091 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। फूलों की घाटी चारों ओर फूलों से भरी होती है। जहां तक नजर जाती है, रंग-बिरंगे फूलों की सुंदरता आंखों और मन को असीम सूकुन देती है। वहीं शांति और आनंद महसूस होता है, जो अध्यात्मिक या तीर्थ यात्रा द्वारा मिलता है। फूलों की घाटी एक बड़े फूलों के बाग की तरह दिखाई देती है। यहां पर बर्फ के पिघलने के बाद जून से लेकर अगस्त के महीने में अलग-अलग रंगों के फूलों की भरमार देखी जाती है। जैसे जून में सफेद फूल, जुलाई में लाल फूल और अगस्त में पीले फूल अधिक दिखाई देते हैं। इन फूलों के बीच दूसरे रंगों के फूल से ऐसा मनोरम दृश्य बनता है, जैसे ईश्‍वर ने खुद अपने हाथों से रंग-बिरंगी रंगोली बनाई हो। फूलों की घाटी का पूर्ण रूप देखने के लिए जुलाई-अगस्त ही सबसे अच्छा होता है। फूलों की घाटी में फैली फूलों की सुंदरता के साथ उनकी सुगंध, उन पर मंडराती तितलियां, भंवरे, पक्षियों की चहचहाहट घाटी को नई ऊर्जा, उमंग और उल्लास से भर देती हैं। फूलों की घाटी में लगभग 300 तरह के फूलों की प्रजातियां पाई जाती हैं। अनेक जंगली प्राणियों की जातियां भी यहां देखी जा सकती हैं। इनमें हिरण और हिमालयी भालू प्रसिद्ध हैं।

इस घाटी के एक तरफ पर्वत चोटियां हैं, जहां से पुष्पावती नदी बहती है। नर पर्वत फूलों की घाटी को बद्रीनाथ की घाटी से अलग करता है। ऊंचे पर्वतों से निकलती अनेक जलधाराएं फूलों की घाटी से दिखाई देती हैं। ये जलधाराएं पुष्पावती नदी में आकर मिल जाती हैं। फूलों की घाटी चार महीने के लिए खुली रहती है। जून से लेकर सितम्बर का समय सबसे अच्छा होता है। बाकी समय बर्फबारी और ठंड के कारण फूलों की सुंदरता नहीं देखी जा सकती है। लेकिन फूलों से रहित बर्फ से ढंकी घाटी भी बहुत ही मनोरम दिखाई देती है।

कैसे पहुंचें फूलों की घाटी
फूलों की घाटी भारत के उत्तरांचल प्रदेश के ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है। यहां आने के दो रास्ते हैं- एक रास्ता ऋषिकेश से श्रीनगर, कर्णप्रयाग, जोशीमठ होते हुए गोविंदघाट का 270 किमी लंबा मार्ग। इस मार्ग में अनेक पवित्र नदियों अलकनंदा, भगीरथी, पिंडर, मंदाकिनी के दर्शन होते हैं। दूसरा रास्ता हल्द्वानी से रानीखेत, कर्णप्रयाग, जोशीमठ होते हुए गोविंदघाट का 332 किमी लंबा है।

ऋषिकेश से आगे जोशीमठ से ही फूलों की घाटी की यात्रा शुरू होती है। जोशीमठ से लगभग 20 किमी आगे गोविन्दघाट है। इस स्थान से आगे लगभग 18-19 किमी पैदल मार्ग है। इस मार्ग में पुलना, भ्यूडांर, घाघरिया होकर फूलों की घाटी में पहुंचा जा सकता है। फूलों की घाटी के लिए सबसे अच्छा मौसम जून से लेकर अक्टूबर तक माना जाता है। इसके पूर्व और बाद में हिमपात और बर्फ पिघलने से मौसम अनुकूल नहीं रहता है। जुलाई और अगस्त में यहां फूलों की बहार दिखाई देती है। सितंबर में कम हो जाती है। सितंबर में ब्रह्मकमल की दुर्लभ प्रजाति भी दिखाई देती हैं।

Saturday, July 24, 2010

बौद्ध संस्कृति का केंद्र लेह लद्दाख

भारतीय पर्यटन स्थलों में कश्मीर जितना प्रसिद्ध है, लद्दाख उतना ही अनजान और रहस्यमय है। जम्मू-कश्मीर राज्य के तीन मुख्य भौगोलिक क्षेत्र हैं- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। इसके दो प्रमुख जिले हैं- करगिल एवं लेह। करगिल से सभी परिचित हैं, लेकिन लेह के बारे में बहुत कम जानकारी है लोगों को। बौद्ध धर्म एवं संस्कृति का प्रमुख केंद्र लेह हाल ही में 'सिंधु दर्शन' उत्सव के कारण चर्चा में आया है। लेह पर्यटकों के लिए स्वर्ग है। यह धार्मिक व्यक्तियों के लिए आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र तथा खोजी व्यक्तियों के लिए अपार संभावना का केंद्र है। भारत, चीन तथा पाकिस्तान की सीमाओं की मिलन स्थली भी यहीं है। इसलिए सामरिक दृष्टि से यह संवेदनशील भी है।

कैसे पहुंचें लेह
लेह पहुंचने के दो प्रमुख सड़क मार्ग हैं, जो जून से अक्टूबर तक ही खुले रहते हैं। जम्मू-श्रीनगर-लेह राजमार्ग भारत की सामरिक महत्व की सड़क है। यह 625 किलोमीटर लंबी है। जम्मू से श्रीनगर, फिर सोनमर्ग, जोजिला दर्रा, द्रास, मश्कोह, बटालिक, करगिल, लामायुरू तथा निम्मू इस राजमार्ग के आसपास स्थित हैं। इस सड़क पर यात्रा करना ही अपने आप में एक यादगार अनुभव है। टेढ़ी-मेढ़ी सड़क, बर्फीले पर्वत, गहरी खाई, जोजिला दर्रा, कारगिल, सुरूवेली सब कुछ जन्नत का नजारा है। दूसरा मार्ग मनाली से लेह तक 473 किलोमीटर लंबा है। यह भी चार माह खुला रहने वाला रोमांचक मार्ग है। इस मार्ग पर रोहतांग व तकलांगला दर्रा आता है। आगे सरचू, कारू तथा लेह तक जाने वाला यह मार्ग सुंदरता से मंत्रमुग्ध कर देता है।

लेह पहुंचने के लिए इन मार्गों से तीन दिन का समय लगता है। दो रातें रास्ते में बितानी पड़ती हैं। हवाई यात्रा सुगम लेकिन मौसम की मर्जी पर निर्भर है। चंडीगढ़ से सप्ताह में एक दिन, जम्मू से दो दिन तथा दिल्ली से सप्ताह में पांच दिन विमान सेवा उपलब्ध है। पर्यटकों के लिए लेह यात्रा करने का उत्तम समय मध्य जून से अक्टूबर तक है। इस समय सड़क मार्ग भी चलते रहते हैं तथा तापमान 8 से 25 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। सर्दियों में यहां का तापमान शून्य से 5 से 50 डिग्री नीचे तक पहुंच जाता है।

लेह का इतिहास
लेह कभी लद्दाखी नरेश तस्सेपल नाम्बियाल के कब्जे में था। जनरल जोरावरसिंह ने 1846 में इसे काश्मीर राज्य के अधीन मिलाया, तब से यह जम्मू-काश्मीर का भाग है। लेह का पश्चिमी क्षेत्र पाक सीमा से लगा है तथा यहीं सियाचिन ग्लेशियर है, जो जनसाधारण के लिए निषिद्ध क्षेत्र है। पूर्वी भाग चीन सीमा से लगा है। लद्दाख क्षेत्र बौद्ध लामाओं की साधना स्थली है। सालभर पर्वतीय शिखर बर्फ से ढके रहते हैं जबकि मैदानी भाग रेगिस्तान है। सुंदरता, रहस्य, धर्म एवं विचित्र शांति का यह क्षेत्र पर्यटकों को मोह लेता है।
लेह प्रसिद्ध भारतीय नदी सिंधु के किनारे है। इंडस या सिंधु नदी गर्मियों में इस क्षेत्र के सौंदर्य में चार चांद लगा देती हैं। सिंधु में आगे निम्मू घाटी में जान्सकार नदी आ मिलती है। इन दो नदियों के मिलन के सौंदर्य को शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता।

बौद्ध मठ और महल
पर्यटकों के लिए इस क्षेत्र का मुख्य आकर्षण बौद्ध मठ तथा नाम्बियाल नरेशों तथा मठों के महल हैं। लेह से 70 किलोमीटर के अर्द्धव्यास का एक गोला बनाया जाए तो लद्दाख के सभी महत्वपूर्ण मठ व महल इसमें आ जाते हैं। लेह से 126 किलोमीटर दूरी पर लामायुरू नामक स्थल है। यह प्रसिद्ध बौद्ध मठ है। इसका मार्ग सिंधु-जान्सकार के किनारे-किनारे होकर जाता है।
लेह से लामायुरू मार्ग पर प्रसिद्ध व प्राचीन बौद्ध मठ आलची, लिकिर तथा फयांग आता है। ये सभी मठ दर्शनीय हैं। सिंधु का किनारा, पहाड़ों पर बने मठ, शरीर को चुभती ठंडक बहुत रोमांचक लगता है। इसी मार्ग पर प्रसिद्ध निम्मू घाटी तथा मैग्नेटिक हिल है। लेह से निम्मू घाटी मार्ग पर एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है- गुरुद्वारा 'पत्थर साहेब।'
यह गुरुद्वारा गुरु नानकदेवजी के चमत्कारिक व्यक्तित्व से जुड़ा है। सेना इसका संचालन करती है। यहां गुरु नानकदेवजी को नानकलामा के नाम से जाना जाता है। लेह-मनाली मार्ग पर एक जगह है कारू। यहां सिंधु नदी मैदानी भाग में आती है। इसी मार्ग पर शे महल तथा मठ, थिकसे मठ तथा सिंधु के दूसरे किनारे पर हेमिस मठ हैं। ये सभी मठ बहुत ही महत्वपूर्ण तथा लद्दाखी धार्मिक जीवन का आधार हैं। हेमिस व थिकसे मठ में भगवान बुद्ध की सुंदर मूर्तियां हैं। महल स्थानीय भवन कला के उत्तम उदाहरण हैं।

लेह के अन्य बौद्ध मठों में जापान द्वारा स्थापित शांति स्तूप, स्टाकना मठ, शंकर मठ, माशो तथा स्टोक मठ व पैलेस भी महत्वपूर्ण हैं। ये सभी लेह के आसपास हैं। स्टोक पैलेस में स्टाकना राजाओं की बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रहालय भी है। लेह विमानतल के पास एक प्रसिद्ध मठ है 'स्पितुक मठ'। यह बौद्धों के साथ हिन्‍दुओं व सिखों की आस्था का भी केंद्र है। इस मठ के ऊपरी भाग में भगवती तारा का मंदिर है। मूर्ति सालभर कपड़े से ढंकी रहती है। सिर्फ जनवरी में दो दिन आवरण हटता है। माना जाता है कि तारा की आराधना भगवान बुद्ध करते थे। हिन्‍दुओं के लिए सिद्धपीठ काली का मंदिर है। लद्दाखी जनता के लिए यह देवी पालदन लामो है। लद्दाख के सभी मठ ध्यान, साधना, आध्यात्मिक शक्ति तथा शांति के केंद्र हैं। इन मठों की पूजा व पूजा प्रणाली रहस्यात्मक है। इन मठों की चित्रकारी व मनोहारी रंग पर्यटकों का मन मोह लेते हैं।